Natasha

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राजा की रानी

मैंने कहा, “हो सकता है, किन्तु, हम कष्ट नहीं सहन कर सकते, इसमें हम लोगों के लिए भी तो कोई गौरव की बात नहीं है।”

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा- “नहीं, इसमें तुम्हारा जरा भी अगौरव नहीं है। तुम लोग हम लोगों की तरह दासी की जाति नहीं हो जो कष्ट सहन करके जाओ। लज्जा की बात तो हमारे लिए है, यदि हम कष्ट न सहन कर सकें।”

मैंने कहा, “यह न्याय-शास्त्र तुम्हें सिखाया किसने? काशी के गुरुजी ने?”

राजलक्ष्मी मेरे मुँह के अत्यन्त निकट झुककर क्षण-भर स्थिर हो रही, फिर मुस्कराकर बोली, “मुझे जो कुछ शिक्षा मिली है सब तुम्हारे ही समीप- तुमसे बढ़कर गुरु मेरा और कोई नहीं।”

मैंने कहा, “तब तो फिर, गुरु से तुमने ठीक उलटी बात सीख रक्खी है। मैंने किसी दिन नहीं कहा कि तुम लोग दासी की जाति हो। बल्कि, मैं तो यही बात चिरकाल से मानता हूँ कि तुम दासी नहीं हो। तुम किसी तरह भी हम लोगों की अपेक्षा तिल-भर छोटी नहीं हो।”

राजलक्ष्मी की ऑंखें छलछला आईं, बोली, “सो मैं जानती हूँ। और जानती हूँ इसीलिए तो यह बात तुम्हारे समीप सीख पाई हूँ। तुम्हारी तरह यदि सभी पुरुष यही बात सोच सकते, तो फिर पृथ्वी-भर की समस्त स्त्रियों के मुँह से यही बात सुन पड़ती। कान बड़ा है और कान छोटा, यह समस्या ही कभी न उठती।”

“अर्थात्, यह सत्य बिना किसी विचार के सभी मान लेते?”

राजलक्ष्मी बोली, “हाँ।”

तब मैंने हँसकर कहा, “सौभाग्य से पृथ्वी-भर की स्त्रियाँ, तुम्हारे साथ सहमत नहीं हैं, यही खैरियत है। किन्तु, अपनी जाति को इतना हीन समझते तुम्हें लाज नहीं आती?”

मेरे उपहास पर राजलक्ष्मी ने ध्याकन दिया या नहीं, इसमें सन्देह है। यह बहुत ही सहज भाव से बोली, “किन्तु, इसमें तो हीनता की कोई बात नहीं है।”

मैंने कहा, “सो ठीक है, हम लोग मालिक हैं और तुम दासी, यह संस्कार इस देश की स्त्रियों के मन में इस तरह बद्धमूल हो गया है कि इसकी हीनता भी तुम्हारी नजर में नहीं आती। जान पड़ता है कि इसी पाप से पृथ्वी के सारे देशों की स्त्रियों की अपेक्षा तुम सचमुच ही आज छोटी हो गयी हो।”

राजलक्ष्मी एकाएक सख्त होकर बैठ गयी और दोनों नेत्रों को प्रदीप्त करके बोली, “नहीं, इस कारण नहीं। तुम्हारे देश की स्त्रियाँ अपने आपको छोटा समझने के कारण छोटी नहीं हो गयीं। सच यह है कि तुम्हीं लोगों ने उन्हें छोटा समझकर छोटा बना दिया है, और तुम खुद भी छोटे हो गये हो।”

यह बात मुझे अकस्मात् कुछ नयी-सी मालूम हुई। इसमें जो कुछ गूढ़ अर्थ छिपा हुआ था वह धीरे-धीरे सुस्पष्ट-सा होने लगा। सचमुच ही इसमें बहुत-सा सत्य छिपा हुआ है जो अब तक मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ था।

राजलक्ष्मी बोली, “तुमने तो उस भद्र पुरुष के सम्बन्ध में मजाक किया था किन्तु उसकी बात सुनकर मेरी ऑंखें कितनी खुल गयी हैं, सो तुम नहीं जानते।”

'नहीं जानता', यह स्वीकार करते ही वह कहने लगी, “नहीं जानते इसके कारण हैं। किसी भी वस्तु को जानने के लिए जब तक मनुष्य के हृदय के भीतर एक तरह की व्याकुलता नहीं उठती तब तक सब कुछ उसकी नजर में धुँधला ही बना रहता है। इतने दिन तुम्हारे मुँह से सुनकर सोचा करती थी कि सचमुच कि सचमुच ही यदि हमारे देश के लोगों का दु:ख इतना अधिक है, सचमुच ही यदि हमारा समाज इतना अधिक अन्धा है, तो उसमें मनुष्य जीता ही क्योंकर है, और उसको मानकर ही क्यों चलता है?”

मैं चुपचाप सुन रहा हूँ, यह देखकर वह आहिस्ते-आहिस्ते कहने लगी, “और तुम भी क्या समझोगे? कभी इन लोगों के बीच रहे नहीं, कभी इन लोगों के सुख-दु:ख भोगे नहीं; इसीलिए बाहर ही बाहर बाहर के समाज के साथ तुलना करके समझते हो कि इन लोगों के कष्टों की शायद कोई सीमा ही नहीं। धनी जमींदार पुलाव खाया करता है। वह अपनी किसी दरिद्र प्रजा को बासी भात खाते देखकर सोचता है कि 'इसके दु:ख की कोई सीमा नहीं है'- जिस तरह वह भूलता है उसी तरह तुम भूलते हो।”

मैंने कहा, “तुम्हारा तर्क यद्यपि न्याय-शास्त्र के नियमानुसार नहीं चल रहा है, फिर भी पूछता हूँ कि तुमने कैसे जाना कि मुझे देश के सम्बन्ध में इससे अधिक ज्ञान नहीं है?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “हो ही कैसे सकता है? दुनिया में तुम्हारे जैसा स्वार्थी कोई भी है क्या? जो केवल अपने ही आराम के लिए भागता फिरता है, वह घर की खबर जानेगा ही कहाँ से? तुम जैसे लोग ही तो समाज की अधिक निन्दा करते फिरते हैं जो समाज से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखते, बल्कि उसकी ओर से सर्वथा उपेक्षित रहते हैं। तुम लोग न तो अच्छी तरह पराए समाज को जानते हो और न अच्छी तरह अपने ही समाज को।”

मैंने कहा, “इसके बाद?”

राजलक्ष्मी बोली, “इसके बाद बाहर रहकर बाहरी सामाजिक व्यवस्था देखकर तुम लोग सोच में मरे जाते हो कि हमारी स्त्रियाँ मकान में कैद रहकर दिन-रात काम किया करती हैं, इसलिए उनके समान दु:खी, उनके समान पीड़ित, उनके समान हीन, शायद और किसी देश की स्त्रियाँ नहीं हैं। किन्तु कुछ दिन हमारी चिन्ता छोड़कर केवल अपनी ही चिन्ता कर देखो, अपने को कुछ ऊँचा उठाने की चेष्टा करो!- यदि कहीं कुछ सचमुच का दोष होगा तो वह केवल उसी समय नजर आयेगा- उससे पहले नहीं।”

“इसके बाद?”

राजलक्ष्मी ने क्रुद्ध होकर कहा, “तुम मुझसे मजाक कर रहे हो, यह मैं जानती हूँ। किन्तु, मैं मजाक की बात नहीं कर रही हूँ। घर की मालकिन सब लोगों से खराब खाती-पीती है, कभी-कभी तो नौकरों की अपेक्षा भी। बहुधा उसे नौकरों से भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है। किन्तु, तुम इस दु:ख से व्याकुल होकर रोते हुए मत फिरो; हम लोगों को दासी के समान ही बनी रहने दो, दूसरे देशों जैसी रानी बना डालने की चेष्टा मत करो;- मैं यही बात तुमसे कहती हूँ।”

मैंने, कहा, यद्यपि तुम तर्क-शास्त्र के गाथे पर पैर देकर उसे डुबा देने की तजबीज कर रही हो, किन्तु, फिर भी यह स्वीकार करता हूँ कि शास्त्रानुसार तर्क करने का रास्ता मुझे भी नहीं मिल रहा है।”

उसने कहा, “इसमें तर्क करने- जैसा कुछ भी नहीं है।”

मैंने कहा, “हो भी, तो वह शक्ति मुझमें नहीं है-बड़ी नींद आ रही है। किन्तु, “तुम्हारी बात एक तरह से समझ रहा हूँ।”

राजलक्ष्मी जरा चुप रहकर बोली, “हमारे देश में चाहे जिस कारण हो, छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, सभी लोगों में रुपयों का लोभ बहुत ही बढ़ गया है। कोई भी थोड़े में सन्तुष्ट होना नहीं जानता, चाहता भी नहीं। इससे कितना अनिष्ट हुआ है, इसका पता मैंने पा लिया है।”

“बात सच है, किन्तु तुमने पता किस तरह पाया?”

राजलक्ष्मी बोली, “रुपयों के लोभ से ही तो मेरी यह दशा हुई है! किन्तु पूर्व काल में शायद इतना लोभ नहीं था।”

मैंने कहा, “इस इतिहास को मैं ठीक-ठीक नहीं जानता।”

वह कहने लगी, “इतना कभी नहीं था। उस समय माता रुपये के लोभ से अपनी बेटी को कभी इस रास्ते पर नहीं ढकेलती, उस समय धर्म का डर था। आज तो मेरे पास रुपयों की कमी नहीं है किन्तु मेरे समान दु:खी भी क्या कोई है? रास्ते का भिखारी भी, मैं समझती हूँ, मुझसे बहुत अधिक सुखी है।”

उसका हाथ अपने हाथ में मैं रखकर पूछा, “तुम्हें सचमुच ही इतना कष्ट है!”

राजलक्ष्मी ने क्षण-भर मौन रहकर और एक बार ऑंचल से ऑंख-मुँह पोंछकर कहा, “मेरी बात मेरे अन्तर्यामी ही जानते हैं।”

इसके बाद दोनों ही गुमसुम हो रहे। गाड़ी की रफ्तार कम होकर वह एक छोटे स्टेशन पर आकर खड़ी हो गयी। कुछ देर बाद उसने फिर चलना शुरू किया। मैंने कहा, “क्या करने से तुम्हारा शेष जीवन सुख से कट सकता है, यह मुझे बतला सकती हो?”

राजलक्ष्मी बोली, “यह मैंने सोच रक्खा है मेरा सारा धन यदि किसी तरह चला जाय, कुछ न बच रहे-एकबारगी निराश्रय हो जाऊं, तो...”

अब फिर बिल्कु'ल गुमसुम हो रहे। उसकी बात इतनी स्पष्ट थी कि सभी समझ सकते हैं, मुझे भी मसझने में देर न लगी। कुछ देर चुप रहकर पूछा, “यह खयाल कब से आया तुम्हारे मन में?”

राजलक्ष्मी बोली, “जिस दिन अभया की बात सुनी उसी दिन से।”

“मैने कहा, “किन्तु, उन लोगों की जीवन-यात्रा तो बीच में ही खत्म हुई नहीं जाती। भविष्य में वे कितना दु:ख पा सकते हैं, सो तो तुम जानती नहीं।”

वह सिर हिलाकर बोली, “नहीं, जानती नहीं, यह सत्य है; किन्तु वे चाहे कितना ही दु:ख क्यों न पावें, मेरे समान दु:ख किसी दिन न पावेंगे, यह मैं निश्चयपूर्वक कह सकती हूँ।”

और भी कुछ देर चुप रहकर मैंने कहा, “लक्ष्मी, तुम्हारे लिए मैं अपना सर्वस्व त्याग कर सकता हूँ; किन्तु इज्जत का त्याग कैसे करूँ?”

राजलक्ष्मी बोली, “मैं क्या तुमसे कुछ त्यागने को कहती हूँ? इज्जत ही तो मनुष्य की असली चीज है। उसका यदि त्याग नहीं कर सकते तो त्याग की बात ही क्यों मुँह पर लाते हो? तुमसे तो मैंने कुछ भी त्याग करने के लिए नहीं कहा।”

मैंने कहा, “कहा नहीं, सो ठीक है; किन्तु, कर सकता हूँ। इज्जत जाने के बाद पुरुष का जीता रहना एक विडम्बना है। केवल इस इज्जत को छोड़कर तुम्हारे लिए मैं सभी कुछ विसर्जित कर सकता हूँ।”

राजलक्ष्मी ने सहसा हाथ खींच लिया और कहा, “मेरे लिए तुम्हें कुछ भी विसर्जित करना पड़ेगा। किन्तु तुम क्या यह समझते हो कि केवल तुम लोगों के ही इज्जत है, हम लोगों की कोई इज्जत नहीं? हम लोगों के लिए उसका त्याग देना क्या इतना अधिक सहज है? फिर भी, तुम लोगों के लिए ही सैकड़ों-हजारों स्त्रियों ने इसे धूल की तरह फेंक दिया है, यह अवश्य ही तुम नहीं जानते, पर मैं जानती हूँ।”

मेरे कुछ बोलने की चेष्टा करते ही उसने रोकर कहा, “रहने दो, अब और कुछ कहने की जरूरत नहीं। तुम्हें इतने दिन मैंने जो समझा था वह गलत था। तुम सो जाओ- अब इस सम्बन्ध में मैं भी कभी कोई ऐसी बात न कहूँगी, तुम भी न कहना।” इतना कहकर वह उठी और अपनी बेंच पर जा बैठी।

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